उसी सवाल का जवाब जो सोच पाया वही है ये रचना... पुरानी है... थोड़े संपादन के सा थ... नभ के दामन से कल इक सिता...
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उसी सवाल का जवाब जो सोच पाया वही है ये रचना... पुरानी है... थोड़े संपादन के सा थ... नभ के दामन से कल इक सिता...
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माँ ने भी दुनिया देखी थी बाल धुप में सफ़ेद कहाँ हुए थे बेटा देखो न कुछ नहीं बदला न तुम न मैं वही शाम, वही सुबह, वही रात, रुकमिनी भी वही है ये घर, ये आँगन, ये तुलसी का चौरा
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इस सफाई के बाद भी लोगों को लगेगा कि सुशील जी ने ही अपने चमचे से ये चिट्ठी लिखवाई है … पर साफ़ कर दूं … अगर कहीं अंतरात्मा की पुकार कुछ होती है, तो वही है ये कमेंट / चिट्ठी लिखने की वज़ह) ।
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अक्सर सोचता हूँ जब भी तारा टूटता है या पलक का बाल टूट कर गिरता है...तो हम कुछ मांगते क्यूँ है...उसी सवाल का जवाब जो सोच पाया वही है ये रचना...पुरानी है...थोड़े संपादन के साथ...नभ के दामन से कल इक सितारा गिरा...माँ के आँचल का सूना हुआ फिर सिरा...माँ को...
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अक्सर सोचता हूँ जब भी तारा टूटता है या पलक का बाल टूट कर गिरता है...तो हम कुछ मांगते क्यूँ है...उसी सवाल का जवाब जो सोच पाया वही है ये रचना...पुरानी है...थोड़े संपादन के साथ...नभ के दामन से कल इक सितारा गिरा...माँ के आँचल का सूना हुआ फिर सिरा...माँ को
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क्योंकि जब कभी इन पर हमला होता है तो ये अपनी अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देते हैं लेकिन इससे समाज का सहयोग इन्हें नहीं मिलता, कारण ; वही है ये समाज के भले के लिए काम नहीं करते, अपितु शुद्ध रूप से अपने आर्थिक हित के लिए काम करते हैं।